समाचार पत्रों के प्रकाशन के पीछे खास मकसद को नकारा नहीं जा सकता। सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अभिव्यक्ति के मद्देनजर इसे एक मिशन के तहत अंजाम दिया गया।
स्वतंत्रता संग्राम में पत्र और पत्रकारिता को सिपाही की भूमिका में देखा गया। महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय,
डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, डॉ. भीम राव अंबेडकर आदि ने अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिए
समाचार पत्रों का सहारा वैचारिक हथियार के तौर पर किया। इनके पत्र समाचार के लिए कम, विचारों के लिए ज्यादा पढ़े जाते थे। वहीं दूसरी ओर अँग्रेजी हुकूमत द्वारा
संचालित पत्रों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति, इतिहास और परंपरा को भी तोड़-मोड़कर विचारों के माध्यम से पेश किया जाता
था।
साहित्यिक पत्रकारिता, धार्मिक पत्रकारिता, भाषाई पत्रकारिता और जातिगत पत्रकारिता का इस्तेमाल कर सभी ने अपने-अपने विचारों, मतों और सोच को स्थापित करने की
कोशिश की। सबने अपनी-अपनी जरूरतों के मद्देनजर पत्रकारिता को हथियार के रूप में प्रयोग किया। वैचारिक सोच को अपने लोगों तक पहुँचाते हुए उन्हें गोलबंद करने का
काम किया गया। आज जब साहित्यिक, धार्मिक, भाषाई और जातिगत पत्रकारिता पर नजर डालते हैं, तो उनके स्वरूप में वह धार नहीं दिखती जिसे लेकर वे सामने आए थे। जबकि
वस्तुस्थिति आज भी प्रासंगिक है। कहा जा सकता है कि ज्यादातर ये सिमट कर ही रह गए हैं या फिर एक साजिश की तरह चीजों को गोल कर देते हैं। वहीं दूसरी ओर भूंडलीकरण
के दौर में हर कोई व्यवसायिक नजरिए को सामने लाने से नहीं चूक रहा है। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक आंदोलन की बात हो या फिर देश-दुनिया को राह दिखाने
वाले महान व्यक्ति के विचारों की। पत्रकारिता में वह सब अब नहीं के बराबर दिखता है।
आज मीडिया में विचारों की लड़ाई लड़ने वाले विद्धानों खासकर वंचित वर्ग के चिंतकों ज्योतिबा फुले, पेरियार, डॉ. भीम राव अंबेडकर को नजरंदाज मीडिया द्वारा किया जा
रहा है। विचार या समाचार आते भी हैं तो उनके पुण्यतिथि - जयंती के अवसर पर ही। फिर भी वे अपना दिव्य चेहरा दिखाने से बाज नहीं आते। संविधान निर्माता बाबा साहब
डॉ. भीम राव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस 06 दिसंबर 2015 की खबरों को मीडिया में पहले पृष्ठ में एक कॉलम तक की जगह नहीं दी गई थी। राष्ट्रीय और स्थानीय समाचार
पत्रों ने बाबा साहब को प्रथम पृष्ठ पर जगह न देकर अपने चरित्र पर लगे दाग को उजागर कर दिया। भारतीय मीडिया पर दलितों-वंचितों को नजरअंदाज करने का आरोप तो लगाता
ही रहा है।
भारत सरकार ने बाबा साहब के महापरिनिर्वाण दिवस पर देश के तमाम अखबारों के 6 दिसंबर 2015 के अंक के लिए पूरे पृष्ठ का विज्ञापन जारी किया था। तमाम अखबारों ने इस
विज्ञापन को छापकर मुनाफा बटोरा था। लेकिन, बाबा साहब के महापरिनिर्वाण दिवस की खबर को उतनी अहमियत नहीं दी गई जितनी मिलनी चाहिए थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली में बाबा साहब की स्मृति पर दस और एक सौ पच्चीस रुपये के स्मारक सिक्के जारी किए थे, यह खबर भी प्रमुखता से खबर नहीं बनी
थी और न ही तसवीर को मुख्य पृष्ठ पर छापने की जहमत अखबारों ने उठाया। हालाँकि बिहार से प्रकाशित एक मात्र दैनिक आज ने फोटो छापा। राष्ट्रीय पत्रों में यह लगभग
नदारत रहा। बिहार से प्रकशित तमाम दैनिक पत्रों ने अपने मुख्य पृष्ठ पर बाबा साहब के महापरिनिर्वाण दिवस की खबर को एक कॉलम तक नहीं दिया। दैनिक हिंदुस्तान ने
दूसरे पृष्ठ पर एक चित्र छापा। पेज नंबर आठ पर खबर प्रकाशित की। दैनिक हिंदुस्तान ने बाबा साहब की राष्ट्रीय खबर को देश-विदेश पेज इक्कीस पर तीन कॉलम में
प्रकाशित किया था। वहीं, दैनिक भाष्कर ने भी पहले पृष्ठ पर बाबा साहब की न तसवीर छापी, न खबर। पृष्ठ चार एवं पृष्ठ सात पर उन्हें जगह दी। जबकि राष्ट्रीय खबर को
पृष्ठ संख्या सत्रह पर फोटो के साथ छापी गई, लेकिन खबर में बाबा साहब नजर नहीं आए। यही हाल दैनिक जागरण का रहा। दैनिक जागरण ने दूसरे नंबर पेज पर दो कॉलम में
तसवीर के साथ जगह दी थी। जबकि राष्ट्रीय खबर को पेज नंबर बारह पर चार कॉलम में जगह मिली थी। यहाँ भी बाबा साहब की कोई तसवीर नहीं छापी गई थी। आज अखबार ने भी
दूसरे नंबर पर तसवीर के साथ राजधानी पटना में बाबा साहब से जुड़ी कई खबरों को जगह दी थी। साथ ही पृष्ठ संख्या नौ पर सिक्का जारी करते हुए प्रधानमंत्री द्वारा
पुष्प अर्पित करते हुए तसवीर के साथ खबर प्रकाशित किया था। राष्ट्रीय सहारा ने भी दूसरे पेज पर फोटो के साथ बाबा साहब की फोटो छापी थी। राष्ट्रीय खबरों को तसवीर
के साथ पृष्ठ संख्या तेरह पर जगह मिली थी।
प्रभात खबर के पृष्ठ संख्या दस पर फोटो के साथ जगह दी गई। राष्ट्रीय खबर में देश-विदेश पेज संख्या बीस पर जगह मिली। अँग्रेजी अखबर टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी पहले
पृष्ठ पर बाबा साहब कोई खबर नहीं छापी। पृष्ठ संख्या सात पर प्रधानमंत्री की खबर फोटो के साथ छापी। हिंदुस्तान टाइम्स एकमात्र अँग्रेजी अखबार रहा जो बाबा साहब
के महापरिनिर्वाण दिवस पर प्रधानमंत्री की तसवीर को जगह दी। स्थानीय खबर को पृष्ठ संख्या तीन पर जगह दी गई।
दिल्ली से प्रकाशित अखबारों का हाल भी बुरा रहा। नवभारत टाइम्स ने प्रथम पेज पर संसद परिसर में बाबा साहब का महापरिनिर्वाण दिवस मनाने आए प्रधानमंत्री मोदी और
अन्य की तस्वरीर छापी। खबर के नाम पर छोटा सा बॉक्स न्यूज दिया गया। दैनिक हिंदुस्तान हो या दैनिक जागरण या अन्य पत्र अमूमन सभी ने प्रथम पेज पर जगह नहीं दी।
मीडिया के रवैये से आहत सम्यक भारत के संपादक के.पी. मौर्य ने फेसबुक पर अपना विरोध जताया। उन्होंने लिखा कि डी.ए.वी.पी. द्वारा 6 दिसंबर 2015 बाबा साहब डा.
अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर दो दिन पूरे पृष्ठ का रंगीन विज्ञापन लगभग सभी दैनिक समाचार पत्रों को जारी किया, जिनमें से एक भी समाचार पत्र दलित व्यक्ति
द्वारा संचालित नहीं हैं। लेकिन 7 दिसंबर के जनसत्ता समाचार पत्र को देखा हैरान रह गया बाबा साहब डॉ. अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित मुख्य समारोह जिसमें
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री शामिल थे और ऐसा ही एक समारोह प्रधानमंत्री निवास पर बाबा साहब डॉ. अंबेडकर स्मारक सिक्का जारी करने का भव्य
समारोह, विज्ञान भवन में श्रम मंत्रालय द्वारा आयोजित समारोह में से किसी एक को भी प्रमुखता से रंगीन चित्र के साथ समाचार प्रकाशित नहीं किया।
यह पहला मौका नहीं है। अकसर देखा जाता है कि दलितों-वंचितों के नायक-महानायकों को मीडिया तरजीह नहीं देता है। पुण्यतिथि हो या जयंती संपादकीय पृष्ठ की बात दूर
पहले पेज पर खबर नहीं दी जाती है। दी भी जाती है तो अंदर के पेज पर बिना प्रमुखता से लगा दिया जाता है। सवाल उठता है कि संविधान निर्माता और दलित-वंचितों की
आवाज बाबा साहब क्या प्रथम पृष्ठ के लायक नहीं हैं? या फिर जान-बूझ कर मीडिया ने उन्हें अंदर के पृष्ठों में जगह दी? जहाँ स्थानीय पत्रों ने बाबा साहब की तसवीर
छापी वहीं राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने राजनेताओं को जगह दी। दलितों के मसीहा के साथ यह भेदभाव कहीं मीडिया के बाजारवाद या फिर उनकी सोच की देन तो नहीं? कहने के
लिए बाबा साहब को मीडिया में जगह मिली लेकिन प्रमुखता से नहीं।
इसके पीछे तर्क यह है कि शुरू से ही भारतीय मीडिया पर उच्च जातियों का कब्जा बराबर रहा हैं। मीडिया को संचालित करने वाले लोग ऊपरी तौर पर वर्ग संघर्ष और वर्ण
व्यवस्था के खिलाफ दिखते जरूर है लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। वे नहीं चाहते कि मुख्यधारा से दबे-कुचले लोग सामने आए। जाहिर है जब मीडिया में बाबा साहब का विचार
या सोच लोगों के सामने आएगी तो लोग प्रभावित होंगे और गोलबंद भी होंगे। संघर्ष की जमीन तैयार होगी। मीडिया को विचारों से नहीं खबरों से मतलब है। आज विजन नहीं
झलकता है। झलकता भी है तो उसमें बाजारवाद दिखता है। अखबार में क्या जाएगा या नहीं यह सब संपादक की सोच पर टिकी है। और हम जानते हैं कि ज्यादातर संपादक
ब्राह्मणवाद की गिरफ्त में हैं। ऐसे में बाबा साहब जिस वर्ग से आते हैं उन्हें भला क्यों वे तरजीह दें? अखबारों का स्लोगन बड़ी बड़ी-बातें करता है। कोई अखबार को
आंदोलन बताता है तो कोई कुछ और।
बाबा साहब के विचारों या फिर दलित मुद्दों को, राष्ट्रीय व स्थानीय मीडिया में वह स्थान नहीं मिलता, जो महाराष्ट्र में मिलता है। पत्रकारिता के इतिहास को देखा
जाए तो, महाराष्ट्र के समाज सुधारकों ने दलितों को जागृत करने के ख्याल से पत्र निकाले, बल्कि सिलसिला जारी है। जो दलित समाज के थे और दलितों की पीड़ा से परिचित
थे। पत्रों का प्रभाव अखिल भारतीय दलित समाज पर पड़ा। इन समाचार पत्रों द्वारा दलितों की व्यथा, उनके प्रश्न, समाज और शासन के सामने खुलकर रखने का काम किया गया।
दलितों के समाचार पत्रों से दलितों में वैचारिक क्रांति आने लगी और वे संघर्ष करने के लिए तैयार होने लगे। लेकिन यह सब बिहार के परिप्रेक्ष्य में नहीं दिखा।
स्थिति आज भी वैसी ही है। दलित मुद्दों या फिर बाबा साहब को ले कर पत्र निकले भी तो उनका दायरा व्यापक नहीं हो पाया है। दलित सरोकार से जुड़े लोग कहते हैं कि
इसके पीछे, वजूद का मजबूत नहीं होना है जो बाकी पर भारी नहीं पड़ सका। और फिर तथाकथित सवर्णो का वह नजरिया जो पूर्वाग्रह से ग्रसित है बदल नहीं सका है।
महाराष्ट्र में 19वीं सदी में मराठी समाचार पत्रों पर ब्राह्मण वर्ग का कब्जा था और उनके द्वारा निकाले गए समाचार पत्रों में दलितों के प्रश्नों पर सफेदपोश
दृष्टि रखा जाता था। साथ ही बहुजन समाज के प्रश्नों, उनकी मूलभूत समस्याओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था। जाहिर है ऐसे में दलित वर्ग के बीच झटपटाहट देखी
गई। सबसे पहले महात्मा ज्योति राव फुले सामने आए। उन्होंने दलित समाज की पीड़ा को समझते हुए क्रांतिकारी कदम उठाया। फुले ने पुराने विचारों को उखाड़ फेंका और नए
क्रांतिकारी विचार स्थापित करने के लिए दलितों को गोलबंद किया। उनका मकसद साफ था कि वर्षो से सवर्ण जाति के चंगुल में फँसे दलितों का उनके जाल से बाहर निकालना।
धर्म और सामाजिक बंधनों का वास्ता देकर गुलाम बनाए गए दलितों के अंदर झटपटाहट देखी गई। उन्हें गुलामी से छुटकारा दिलाने के लिए फुले ने लेखन को हथियार बनाया।
फुले के प्रयासों से दलित और बहुजन समाज में शिक्षा का प्रसार होने लगा। कोंकण के महाड़ जिले के रावदक गाँव में एक अछूत (महार) जाति में जन्मे अस्पृश्य समाज के
पहले पत्रकार गोपाल बाबा बलंगकर ने बीड़ा भी उठाया और दलितों के प्रश्न खुद दलितों द्वारा ही उठाने की वकालत करते हुए दलितों को गोलबंद करने का प्रयास किया।
शुरुआती दौर में जो भी दलित समाचार पत्र छपे सभी सामाजिक प्रश्नों को उठाते रहे। इन पत्रों ने दलितों पर होने वाले अन्याय, अत्याचारों को आवाज प्रदान दलितों के
बीच एक सार्थक सोच विकसित हुआ। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से फुले, बाबा साहब डॉ. अंबेडकर आदि के विचारों को जनता तक पहुँचाया जाने लगा। उस समय पाठक कम थे और
श्रोता अधिक। क्योंकि दलित शिक्षा का सूचकांक बहुत नीचे था। कबीरपंथी साधु, बौद्ध भिक्षु बनने लगे थे। ये ही लोग घर-घर जाकर बुद्ध व बाबा साहब का संदेश पहुँचाते
थे।
बाबा साहब का विचार केवल दलितों के लिए ही नहीं बल्कि देश के हर व्यक्ति के लिए जरूरी और हितकर है। देश को आगे बढ़ाने के लिए समाज को जोड़कर आगे करना होगा और इसके
लिए जो मुख्यधारा से कटे है खास कर दलित वर्ग उन्हें गोलबंद करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। इसके लिए स्वस्थ विचारों का होना जरूरी है और यह विचार मीडिया के माध्यम
से हजारों-लाखें-करोड़ों लोगों तक आसानी से पहुँच सकता है।